गौ रक्षा के लिए बिश्नोई समाज के लोगों ने दी शहादत
मंदिर के समीप हैं काले हिरण, होती है उनकी पूजा
300 वर्ष पुराना मंदिर
108 शब्दों का पाठ हर रोज
40 साल से जल रही अखण्ड़ ज्योत
29 नियमों का करते हैं पालन
नई दिल्ली। हरियाणा के फतेहाबाद के चिंधड़ गांव में स्थित है बिश्नोई समाज का एक ऐसा मंदिर जिसमें कोई मुर्ति नहीं है। बल्कि उनके गुरू श्री गुरु जम्भेश्वर जी महाराज की मात्र एक चित्र ही इस मंदिर में विद्यमान है। यहां मंदिर के समीप एक जोहड़ है जिसे शहीदी एवं बुढ़ा जोहड़ भी कहते हैं। बताया जाता है कि गौ रक्षा के लिए बिश्नोई समाज के लोगों ने यहां शहादत दी थी। चिंघड़ गांव के एक छोर पर खुले में स्थित मंदिर के अगल-बगल बहुत ही मनोरम वातावरण है। पेड़ पौधों की हरियाली के बीच काले हिरण यहां अक्सर विचरण करते देखे जा सकते हैं। बिश्नोई समाज के द्वारा काले हिरण की पूजा होती है। 300 वर्ष पुराने इस मंदिर का महात्म्य इतना ज्यादा है कि यहां हर रोज सुबह 108 शब्दों का पाठ होता है। और बीते 40 साल से अखण्ड ज्योत लगातार जलती आ रही है।
गौ रक्षा के लिए 300 लोगों ने दी बलिदानी
मंदिर के पुजारी गोविन्द प्रकाश के अनुसार इस मंदिर को शहीदों की शहादत के लिए याद किया जाता है। मंदिर के पुजारी गोविंद प्रकाश जी ने हमारे ‘‘ जानें अपने मंदिर‘‘ की टीम को बताया कि यहां की भूमि पहले बंजर होती थी। यहां गायें चरती थीं। मुस्लिम लोग गाय चुराने आए थे उसे प्रतिरोध स्वरूप करीब 300 लोगों की जान गंवानी पड़ी। इसलिए इस स्थान पर मंदिर बनाया गया। उन्होंने बताया कि मंदिर की जगह यहां करीब 300 सालों से थी। उनके दादा गुरू पहले मंदिर की सेवा करते थे। 40 साल पहले उन्होंने ही मंदिर का जिर्णोदार करवाया। गोविन्द प्रकाश के अनुसार एक अन्य मौके पर मुस्लिम लोगों को मैदान छोड़ के भागना पड़ा। वे हथियारों से लैस होकर गांव पर आक्रमण करने आए थे। मगर गुरू जम्भेश्वर की महिमा से मात्र लाठी -डंडों के बदौलत ही गांव वालों ने मुस्लिमों को खदेड़ दिया। यहां मंदिर के बगल में एक बड़ा जोहड़ है जिसे शहीदी जोहड़ भी कहते हैं।
300 वर्ष पुराना मंदिर का इतिहास
फतेहाबाद के इस बिश्नोई मंदिर का इतिहास 300 वर्ष पुराना है। यहां एक जोहड़ भी है। इस इलाके में पानी की चाहे कितनी भी समस्या रही हो लेकिन इसका पानी कभी खत्म नहीं होता है। मंदिर के पुजारी गोविंद प्रकाश के अनुसार वैसे तो बिश्नोई समाज के लोग हर दिन ही अपने गुरु की पूजा करते हैं लेकिन अमावस्या और जन्माष्टमी पर यहां लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। आधुनिकता और दिखावे से दूर, प्रकृति के बीच रहने वाला ये समाज, भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों के लिए एक मिसाल है। एक ओर विकास के नाम पर प्रकृति का विनाश हो रहा है। तो वहीं ये समाज प्रकृति की पूजा करता है।
बिश्नोई पंथ के संस्थापक श्री गुरु जम्भेश्वर जी महाराज
श्री गुरू जंभेश्वर भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। गुरु जंभेश्वर का जन्म एक हिंदू राजपूत परिवार में हुआ था। प्रकृति की रक्षा करने के उद्देश्य से गुरु जंभेश्वर महाराज ने सन 1485 में समराथल धोरा में इस समुदाय की स्थापना की। उन्होंने अपनी शिक्षाओं में 120 शब्दों की रचना की और ये शब्द वाणी बिश्नोई समाज का सबसे बड़ा ग्रंथ है।
मंदिर में क्यों नहीं कोई मूर्ति, क्यों होती है चित्र की पूजा
चिंधड़ गांव के निवासी कृष्णा के अनुसार बिश्नोई समाज का संबंध भक्त प्रहलाद से है। और हमारे गुरू जम्भेश्वर महाराज ने पाखंड और आडम्बरों से दूरी बरतने की शिक्षा दी है। उनकी दी गई शिक्षा में पहाड़ यानी पत्थर पूजने की मनाही है। इसलिए मंदिर में पत्थर की कोई मूर्ति नहीं है। उन्होंने बताया कि केवल गुरू जम्भेश्वर की एक चित्र इस मंदिर में टंगी है उसी की पूजा होती है। उन्होंने बताया कि यहां अगल-बगल के 15-16 गांवों में बिश्नोई समाज से जुड़े लोगों की संख्या बहुतायत में है। इसलिए मंदिर पर लोगों का आना-जाना लगा रहता है। इस ऐतिहासिक मंदिर की मान्यता सभी समाज के लिए है। यहां 12 माह में एक बार भगवान श्री कृष्ण की भागवत कथा होती है। सभी 16 गांवों के लोग इसमें शामिल होते हैं। इसके अलावा प्रत्येक अमावस्या को विशेष पूजा होती है। जन्माष्टमी का पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है।
108 शब्दों का पाठ हर रोज
मंदिर के पुजारी गोविंद प्रकाश के अनुसार मंदिर सुबह 5 बजे खुल जाता है। और रात्रि 7 बजे बंद होता है। उन्होंने बताया कि मंदिर में 108 शब्दों का पाठ हर रोज होता है। यहां 40 साल से अखण्ड़ ज्योत लगातार जल रही है। मंदिर के पास एक प्राचीन कुंआ है। जिससे 7-8 गांव के लोग पानी पीते थे। मंदिर में खास मान्यता यह है कि यहां मन्नत मांगने से निःसंतानों को संतान प्राप्ति हो जाती है।
बिश्नोई समाज के 29 नियम
पर्यावरण की रक्षा के लिए गुरु जम्भेश्वर महाराज ने 29 नियम बनाए थे। जो भी इन 29 नियमों का पालन करता है, वो ही बिश्नोई है। 29 नियमों के कारण ही इस संप्रदाय को बीस$नौ यानी बिश्नोई नाम दिया गया था। बिश्नोई समाज के सभी लोग इन नियमों का अनुसरण जरूर करते हैं। बिश्नोई समाज मूल रुप से राजस्थानी है। गुरू जंभेश्वर महाराज का जन्म भी बिकानेर में ही हुआ था। लेकिन राजस्थान में पड़ने वाले अकाल की वजह से ये समाज हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया।
पर्यावरण की रक्षा जीवन का उद्देश्य
बिश्नोई समाज पीढ़ियों से पर्यावरण की रक्षा करता आ रहा है। प्रकृति के लिए किए गए आंदोलनों का पूरा समृद्ध इतिहास रहा है। बिश्नोई समाज के द्वारा खेजड़ली आंदोलन पेड़ों के काटे जाने के विरोध में चलाया था। प्रकृति की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति तक दी है। पेड़ पौधों और जीवों की रक्षा ही इनके जीवन का असली उद्देश्य है।
खेजड़ी वृक्ष से बिश्नोई समाज का अटूट रिश्ता
बिश्नोई समाज का खेजड़ी यानी शमी के वृक्ष से आत्मीय रिश्ता है। माना है जाता है कि इस वृक्ष में भगवान विष्णु का वास होता है। इस समाज के लिए ये पेड़ इतना महत्व रखता है कि इसके संरक्षण के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते हैं। इसके पेड़ों को बचाने के लिए 1787 में जोधपुर में 363 लोगों ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। पर्यावरण बचाने के लिए ऐसा त्याग कहीं और देखने को नहीं मिलता। इस बिश्ननोई मंदिर के आस पास भी बड़ी संख्या में खेजड़ी के पेड़ हैं। इसकी लकड़ी का इस्तेमाल हवन पूजन में भी किया जाता है। ये पेड़ हमेशा ही हरा भरा रहता है। पेड़ के छाल से लेकर जड़ और पत्ते फल सभी उपयोगी होते हैं।
काले हिरण को पूजता है बिश्नोई समाज
बिश्नोई समाज में सादा और आदर्श जीवन को महत्व दिया गया है। ये इनके पोशाकों में भी झलकता है। पुरुष सफेद पोशाक पहनते हैं तो महिलाएं लाल रंग के कपड़े.. हालांकि समय के साथ थोड़ी तब्दीली जरूर आई है। बिश्नोई समाज का हिरणों के प्रति विशेष लगाव है। ये लोग हिरण को भगवान की तरह मानते हैं और उनका संरक्षण करते हैं। इस समाज की महिलाएं हिरण के बच्चे को अपने मां की तरह पालती हैं। मंदिर में लोग प्रतिदिन हवन करते हैं। जिसमें सिर्फ घी और खेजड़ी की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। समाज के लोग जाम्भोजी की पार्थना करते हैं। प्रकृति, यानी एक ऐसा अनमोल वरदान, जो पृथ्वी पर रहने वाले करोड़ों जीवों की रक्षा करती है। प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। पेड़ पौधे, मौसम, भोजन, पानी सब कुछ प्रकृति की ही देन हैं। इसके बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं। ईश्वर का जो अहसास है वो प्रकृति है। और प्रकृति को जो भगवान मानकर उसकी पूजा करे वो है बिश्नोई समाज है।
कैसे पहुंचे :
बिश्नोई मंदिर हरियाणा के फतेहाबाद के चिंधड़ गांव में फतेहाबाद-आदमपुर मार्ग पर स्थित है.. देश की राजधानी दिल्ली से इस स्थान की दूरी 230 किलोमीटर है…बस या रेल से फतेहाबाद पहुंचा जा सकता है.. वहां से मंदिर की दूरी 25 किलोमीटर है.. फतेहाबाद से यातायात के कई सहज साधन उपलब्ध हैं.. आप अपने वाहन से फतेहाबाद से 30-35 मिनट में इस मंदिर पहुंच सकते हैं..
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